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पावसनामा

Jeevan nama
Jeevan nama
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***************रीतिकालीन “बरसा ऋतु सुखदानि जग ,तुम सम कोऊ नहीं” के विपरीत विदाई की ओर अग्रसर बरसात ने जनता की उलझने और उलझाई।ग्रीष्म के महीनों में मौसम विज्ञानियों ने यह कह कर कृषकों की उलझन बढ़ा दी कि इस वर्ष बरसात औसत से कम होगी। अर्थ व्यवस्था पर इसके कुप्रभाव एवं सरकार की तैयारियों पर चर्चा भी चल पड़ी। परन्तु जब वर्षा होने लगी तो ऎसी हुई कि तीन चौथाई देश जलमग्न हो गया। बादल ऐसे फटे कि गाँव के गाँव अस्तित्व खो बैठे।समाचारों के अनुसार बाढ़ और बरसात से पूर्व की भाँति काफी जन धन की हानि हुई है जब कि कथनी के अनुसार सरकारें भी अति सक्रिय रहीं।पता नहीं ये मिथ्या पूर्वानुमान लगाने वाले सूखे का लाभ उठाने वालों को सही समय का संकेत दे रहे थे या देश के एक युवा नेता की तरह अपनी विशेषज्ञता की ढफली बजा रहे थे।इस पावस ने यह भी देखा कि गुण्डे ,लुटेरे ,हैवान खुलेआम आम आदमी एवँ उनकी बहन ,बेटियों की मर्यादा तार -तार करते रहे और चोर लुटेरे जनता की गाढ़ी कमाई पर हाथ साफ करने का रिकार्ड बनाते रहे। राज्य सरकारें जिनके हाथ कानून व्यवस्था है वे सुरक्षा सुनिश्चित करने से ज्यादा यह प्रचारित करने में लगे रहे कि अन्य राज्यों की तुलना में उनके यहाँ कम अपराध है।घटना घटने के बाद अपनी रीति के अनुसार हमेशा देर से पहुँचने वाली पुलिस और प्रशासन के लोग खानापूर्ति करते हुए जनता की जले पर नमक छिड़कते रहे। थोड़े और समय बाद जब विभिन्न दलों के नेता पहुँच कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए घड़ियाली आँसू बहाना नहीं भूले तो शासन और सरकार से जनता को अत्याधिक घृणा हुई। भुक्तभोगियों की हर प्रतिक्रिया नक्कारखाने में तूती सिद्ध होती रही है।लोकतंत्र से जनता अपने हक़ और सरकार के कर्तव्यों की अपेक्षा करती है पर सरकारें उन्हें अपनी कुटिल कृपावृष्टि से उपकृत कर रही हैं।ये परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं जो देश को बहुत हानि पहुँचा रही हैं।नई केंद्र सरकार द्वारा इस ऋतु में भी कुछ ऐसा होते नहीं दिखा कि इंडिया भारत बनने या भारत इंडिया बनने की ओर अग्रसर हों।ऐसे में पूर्व की भाँति जनता को न्याय पालिका एवँ मिडिया का वही सहारा रहा जो डूबते को तिनके से मिलता है परंतु कर्तव्य एवँ सुविधा के बीच स्वयं इनकी उलझन चिन्ता की लकीरें खींच रही हैं।
***************दूसरी ओर वर्षा ऋतु में हमारे देश की सड़कें ,रेल व बिजली व्यवस्था भी पानी -पानी हो गईं और लोगों की जान से जी भर के खेलीं ।जिन्हे लोगों के जान माल की चिंता होनी चाहिए वे सोचते हैं कि यह तो सामान्य बात है क्योंकि व्यवस्था जनता के लिए है तो जनता ही भुगते गी भी।परन्तु आम आदमी क्या चाहता है ,यह कोई इतनी गूढ़ पहेली नहीं है। जहाँ जनता को चाहिए सुरक्षित ससमय रेलयात्रा वहाँ बार -बार हो रही रेल दुर्घटनाएँ उन्हें मौत का भय दे रही हैं और सरकार तीब्र द्रुतगामी रेल के सपने दिखा रही है। जहाँ उन्हें चाहिए टिकाऊ ,समतल, पक्की सड़कें वहाँ उन्हें दी जा रही है – अल्पावधि में गिट्टियाँ उधड़ी ऊबड़ -खाबड़ जानलेवा सड़कें जिन पर प्रतिवर्ष लाखों लोग दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हैं।सरकार को तो दिखता ही नहीं कि बरसात में कुछ सडकों ने ताल -तलैया का रूप ले लिया और आस -पास बिखरी गिट्टियाँ उन पर चलने वालों के हाथ -पैर तोड़ रही हैं। आम लोग हैरान -परेशान हैं कि ये सड़कें क्यों बनाई जाती हैं। यदि सरकार के पास कोई दक्ष ,ईमानदार और सक्षम व्यवस्था नहीं है तो पहाड़ों को तोड़ कर पर्यावरण को हानि पहुँचाने ,पत्थर की गिट्टियों को समतल भूमि पर छींटने या यही क्रम बार -बार दुहराने और जनता के पैसे बर्बाद करने का सरकार को कोई हक़ नहीं है। लोग अपने को सत्ताधारी ,सरकारी एवँ गैरसरकारी लुटेरों के हाथ लुटते पा रहे हैं और अपनी नियति को कोस रहे हैं।कुछ साल पहले तक कच्ची सड़कें थीं या कम रेल सेवाएँ थीं तो क्या आज जैसी जानमारू तो नहीं थी।नई सड़कें बनती जा रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारें लाखों किलोमीटर सड़क व पुलों के निर्माण होड़ में लगी हैं परन्तु पुरानी सडकों की दयनीयता को कोई देखने वाला नहीं। बिजली की आँख मिचौनी ने जीना दूभर कर रखा है ऊपर से पुराने जर्जर तार बरसात में सडकों एवँ गलिओं में टूट कर गिर रहे हैं और लोगों के जान ले रहे हैं। इसकी चिंता छोड़ नए तार बिछाए जा रहे हैं।जनता क्यों न सोचे कि विशेष अभिरुचि के कारण भी विशेष होते हैं।
**************इस पावस में बच्चों की शिक्षा एवँ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा ने आम लोगों को खूब झकझोरा ;यहाँ तक कि माननीय उच्च न्यायालय इलाहबाद को सख्त निर्णय सुनाना पड़ा कि नेता एवँ अधिकारियों के बच्चे अनिवार्यतः सरकारी स्कूलों में पढ़ाये जाँय तभी सरकारी विद्यालयों की दशा सुधरे गी। जरा उस मनोदशा को सोचें जब कृषक या श्रमिक खेतों में जूझ कर घर आते हैं और बैठक में सुस्ताते जब घर का कोई सदस्य कहता है कि रीता और रितेश को फिर सरकारी प्राइमरी स्कूल में ही भेजना होगा, क्योंकि बाजार में चल रहे अंग्रेजी माध्यम वाले प्राइवेट स्कूल बहुत ज्यादा दाखिला फ़ीस माँग रहे हैं। घर का बूढ़ा मुखिया धुँधली नज़रों से आसमान की ओर देखता है। न उसे तारे दिखते हैं न ही सुनहरी चाँदनी। मानो देसी सरकार रूपी बादलों ने उनके भविष्य को अंधकार से ढँक लिया हो।फिर थका हारा चिंतित परिवार अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य पर इस चर्चा में लग जाता है कि देश में दो प्रकार के स्कूल क्यों। ये नेता कौन सी आजादी की बात करते हैं ? यदि सरकारी स्कूल ही ठीक से चलाते तो हम प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में बच्चे पढ़ाने को क्यों तरसते। वाह रे, स्वराज के अरसठ साल बाद वाले सरकारी स्कूल –जर्जर भवन ,इक्के -दुक्के मास्टर ,न कापी न किताब।शिक्षा का कोई माहौल नहीं परन्तु मध्यान्ह भोजन की चिंता अवश्य हो रही है। ये सरकारी स्कूल क्या हैं – साक्षात शिशु शरणार्थी गृह। अंततः मुखिया निर्णय लेता है कि उसका बेटा अपने बच्चों व पत्नी के साथ शहर जाय। वहीँ अपनी रोजी तलाशे और किसी अच्छे स्कूल में बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करे।बूढ़ों के बुढ़ापे की चिंता छोड़ लोग बच्चों की पढाई हेतु शहर की ओर भाग रहे हैं।उस विकास को क्या कहा जाय जहाँ अच्छी शिक्षा अमीरों के लिए आरक्षित हो गई, नौकरियाँ सामाजिक पिछङों को आरक्षित हो गईं और गरीबों को परवश हो कराहने व वोट देने के लिए छोड़ दिया गया।उस बरसात को भी क्या कहा जाय जिसमें लोगों को घर छोड़ शहर की राह पकड़नी पड़े जबकि हमारी परंपरा चतुर्मासा में प्रवास पर जाना वर्जित करती है। शिक्षक दिवस को राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने मुखर्जी सर बन कर विद्यार्थियों को पढ़ाया ;वहीँ प्रधान मंत्री जी ने सीधे विद्यार्थियों से संवाद किया।यह शिक्षा सुधार की दिशा में एक नव युगारम्भकारी पहल हो सकता है परन्तु तभी जब अंतिम पंक्ति में बैठे साधनहीन विद्यर्थियों को पब्लिक स्कूलों की सुविधा देते हुए उनकी कक्षा में ऐसे दिवस मनाये जाँय गे।भारत और इंडिया अलग -अलग शब्द होना छोड़ एक शब्दार्थ बनाने का प्रयास करते भी नहीं दीख रहे हैं।
*************** बीते पावस से जनताको सुखद आस थी कि सरकार जीएसटी विधेयक पारित कर देगी जिससे उपयोग की जिंस सस्ते दामों पर मिलने लगेंगी। कर के नाम पर ठगहारी व लूट बन्द हो जाय गी। परन्तु ऐसा हो न सका। जो सत्ता खो कर विपक्ष में बैठे हैं ,ऐसा भष्मासुरी नाच संसद और संसद के बाहर नाचे कि जनता ठगी कि ठगी रह गई।जनता के कई सौ करोड़ रुपये इनके इस नौटंकी आयोजन पर खर्च हो गए।ऊपर से इन शर्मविहीन सांसदों ने लोकलाज को किनारे रख अपने बेतन ,भत्ता व छूट वाले भोजन का पावस में खूब आनंद उठाया। आजकल अपने -अपने क्षेत्र में जनता के सामने अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि कैसे उन्होंने सरकार को घुटने टेका दिया। हो सकता है आगामी किसी सत्र में ये सभी पक्ष विपक्ष के नेता ,जीएसटी या कोई अन्य विधेयक पारित करते हुए, एक मत से अपना बेतन ,भत्ता दुगुना या तिगुना करा लें व अपनी विशेष दर्जा व सुविधा की और बड़ी सूची जनता को पकड़ा दें।सातवें बेतन आयोग की सिफारिशें आनेवाली हैं तो बाबू से पीछे सांसद ,विधायक क्यों।जागीर उनकी है ,जो कुछ उनके उपभोग से बच जाय वह कमीशनखोरी के बाद देश एवँ देश के विकास के लिए ही तो है।
***************पावस बीतने वाला है पर उलझन सुलझे ना। स्वतंत्रता पाने के अति उत्साह में तत्कालीन नेताओं ने देश के लिए आरक्षण ,जम्मू -कश्मीर ,देश विभाजन ,राष्ट्रभाषा जैसे राजरोग पैदा कर दिए जो देश की प्रगति को घुन की नाईं चाट रहे हैं।जहाँ जनता की अपनी असह्य उलझनें हैं वहाँ ये पैदा की हुई राष्ट्रीय अनुवाँशिक समस्याएँ, जैसे आरक्षण के लिए चल रहे आन्दोलन ,पश्चिमी सीमा पर आए दिन आम नागरिक एवँ सुरक्षा बल के जवानों का मारा जाना, उन्हें और उलझन में डाल रही हैं।क्या प्याज की बात हो ,क्या दाल के दर्द पर रोया जाय ;जब सरकार सीमा पर पाकिस्तान को जवाब देने ,जम्मू -कश्मीर में आतंकियों को नष्ट करने और देश के विभिन्न भागों में आरक्षण के लिए चल रहे आंदोलनों को निबटने में ही अहर्निश उलझी हुई है।काश !ये समस्याएँ न होती,हम मन ,वाणी और कर्म से ईमानदार होते और देश तथा सरकार की ऊर्जा जन कल्याण कार्यों व विकास में लगी होतीं तो उलझन का नाम- ओ- निशान ही कहाँ होता। यदि लोकतंत्र में समान अवसर का सपना सचमुच में साकार हो पाता तो भारत द्वारा मंगल पर मंगल यान भेजना या शक्तिशाली क्रायोजनिक इंजनों से उपग्रहों का लगातार सफल प्रक्षेपण करना विश्व को कुछ अलग सन्देश दिया होता।फिर भी जनता आशान्वित है कि शरद ऋतु पावस से बेहतर होगी।जिन भारतीयों ने बीते मौसम में अपनीं दाल विहीन थाली से एकाएक प्याज को महँगाई के साथ उड़न छू होते पाया है,उनके दिन जल्द बहुरें गे। सस्ती प्याज थाली में लौट कर फिर उनके आँसू निकाले गी और आँसू पोछे गी .____________________ मंगलवीणा
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