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क्या होगा बिहार का

Jeevan nama
Jeevan nama
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***************बिहार में नई सरकार बनाने हेतु चुनाव प्रक्रिया जारी है।परिणाम बतायें गे कि वहाँ के मतदाता अपने पूर्वाग्रह पर पूर्ववत डटे हुए हैं या रूढ़ियों को तोड़कर विकास व प्रगति की धारा में अन्य राज्यों से प्रतिस्पर्धा का विचार बनाते हैं। यह चुनाव सरकार के बदलाव के साथ वहाँ के मतदाता की अपेक्षाओं को नए ढंग से परिभाषित करने एवँ पाने का सुअवसर भी है।हम सभी जानते हैं कि स्वतन्त्र भारत में समान अवसर की उपलब्धता व बिहार वासियों की बेहतर बौद्धिक सम्पन्नता के बाद भी बिहार से राजनीतिक गांभीर्य गायब हो गया ,शिक्षा अशिक्षित शिक्षा हो गई और सामाजिक पिछडापन वहाँ का ट्रेड मार्क बन गया। न बिहारियों का दूसरे राज्यों में तीब्रतम पलायन बन्द हुआ ,न दूसरे राज्य के लोगों का बिहारियों के प्रति दृष्टिकोण बदला। सामाजिक पिछड़ापन दूर करने केलिए जो आरक्षण की व्यवस्था हुई उससे कुछ वर्गों के पिछड़ेपन को दूर होने की क्या बात हो ,उल्टे पूरा बिहार ही पिछड़ गया। फिर क्या इसके साथ हीनभावना पैदा करने वाला बीमारू राज्य जैसा नाम नत्थी कर दिया गया। अब बीमारू राज्य को स्वास्थ्यलाभ के लिए विशेष पैकेज की माँग हो रही है और यह इस चुनाव का केंद्रीय मुद्दा है।
***************वैसे तो बिहार में किसी भी जाति का प्रतिशत घनत्व इतना नहीं है कि अकेले अपने दम पर किसी प्रत्याशी को विधायक या सांसद का चुनाव जिता दे परन्तु जातिवादी नेताओं के गठजोड़ के कारण जब दो या दो से अधिक जातियों के ध्रुवीकरण का मायाजाल फैलता है तो अयोग्य एवँ जातिवादी लोग विधान सभा और संसद में पहुँचने में सफल हो जाते हैं और प्रदेश एवँ देश की बर्बादी के कर्ता और कारण बनते हैं। शिक्षा को पटरी से उतार देने से बिहार की आम जनता में जाति ,धर्म ,आम जनोपयोगी कानून व विकास का घाल मेल हो गया। यदि इस प्रदेश में समृद्ध शिक्षा का समुचित विकास हुआ होता तो मतदाताओं में यह जागृति अवश्य होती कि जाति और धर्म का अलग क्षेत्र है जिसमें हमें जीना चाहिए , गर्व करना चाहिए ;साथ ही दूसरे की जाति व धर्म का समादर करते हुए अपने जाति व धर्म की उन्नति के लिए प्रयास करना चाहिए।ऐसा होने पर यह भी जागृति होती कि विधायिका एवँ संसद का क्षेत्र विकासोन्मुखी एवँ व्यवस्थादायी क़ानून बनाना तथा विकास एवँ कानून की व्यवस्था का सुनिश्चितीकरण है। फिर तो जनता यही क्षीर -नीर विवेक वाला सूत्र अपना लेती और विश्व में सबसे पहले जनतंत्र का प्रयोग करने वाला बिहार आज अपना खोया वैभव पुनः प्राप्त कर, अन्य राज्यों के लिए ,मार्गदर्शक की भूमिका में आ सकता है। देखना होगा कि जाति ,धर्म से अलग हट कर विकास एवँ विकासोन्मुखी विधायिका के लिए चुनाव लड़ रहे दलों व प्रत्याशियों का क्या हश्र होता है।
***************एक विधायक कैसा हो ,इसका सीधा -साधा मानक हर मतदाता को पता है। फिर भी स्वार्थी दल व प्रत्याशी मिथ्या प्रचार से ऐसी मृग मरीचिका तैयार कर रहे हैं कि मानक या कसौटी के मापदंड ही दृश्यपटल से ओझल हो जाँय और मरीचिका में हिरन का शिकार हो जाय। जातिवाद ,धर्मवाद ,आरक्षण ,गो रक्षा या गो हत्या ,दलित उत्पीड़न ,बलात्कार ,पड़ोसी पाकिस्तान से संबंध और कालिख का पोता -पोती ,राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ पर तंजकसी और पूँजीवाद जैसे मुद्दे इस चुनाव के लिए गढ़े और उछाले जा रहे हैं जिनका उद्देश्य चुनाव को मूल उद्देश्य से भटकाना है।इसी कड़ी में तथाकथित साहित्यकारों ने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा कर चुनावी संग्राम को एक नया मुद्दा दिया है।सैक्युलरिज्म के भ्रामक प्रचार से वैसे ही स्वार्थी नेता इस राष्ट्र के विकास को बाधित किए हुए हैं।इन भूलभुलैयों से बाहर निकलना बिहार के मतदाताओं के लिए एक कठिन परीक्षा है।
***************चुनाव परिणाम के बाद बिहार का राजनीतिक स्वरुप देश की भावी दिशा एवँ गति को अपरिहार्य रूप से प्रभावित करे गा।यदि भ्रामक मुद्दों की पराजय होती है तो विजय का मुकुट बिहार के नव युवतिओं और युवकों के सर पर होगा तथा प्रगति एवँ विकास वादी बिहार का उदय होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो मानना ही होगा कि चक्रव्यूह में अभिमन्यु अभी भी फँसा हुआ है। सत्ता ही नहीं विपक्ष में भी जो विधायक चुन कर आएं गे उनकी पृष्ठभूमि ,सोच व रुझान से लोकतान्त्रिक प्रणाली में त्रुटि ,संतुलन और सुधार की धनात्मक या ऋणात्मक लालसा का संकेत होगा। कोई भारत वासी नहीं चाहता कि कमाई ,दवाई और पढाई के लिए बिहार के लोग परप्रांतों पर निर्भर रहें। सराहनीय स्थिति वह होगी कि उलटी गंगा बहे। नई सोच के लोग यह भी देखने को उत्सुक हैं कि बिहार के नेताओं को मतदाता हमेशा केलिए उनके यथोचित स्थान पर पहुँचायें गे अथवा नौटंकी जारी रहे गी और थाप पर दर्शक जुटते रहें गे।—————- मंगलवीणा
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वाराणसी ,दिनाँक 24 अक्टूबर 2015
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