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हिंदी के साथ छल

Jeevan nama
Jeevan nama
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हमारे देश में चौदह सितंबर से हिन्दी  के लिए एक पखवाड़ा की उत्सव बेला आती है। लोग एकाएक हिन्दी को विश्व की सर्वाधिक समर्थ भाषा बताने लगते हैं और हिन्दी  का गुणगान कर तद्गत लाभ साधने लगते हैं।पूरे देश के कार्यालयों,विभागों व् अनेकानेक संस्थानों के अँग्रेजियत से ओतप्रोत प्रमुख, हिन्दी  महिमामहोत्सव के लिए, मंचों पर सजने लगते हैं। तीन सौ पैंसठ दिन हिन्दी  की अनवरत सेवा करनेवालों को तो इस भुलावे से कोई अंतर नहीं पड़ता परन्तु प्रति वर्ष चौदह सितम्बर से एक पखवारा तक हिन्दी  के नाम उत्सव मनाने वालों के उत्साह का पारावार नहीं होता। यह उत्सव भारत में सरकार द्वारा आयोजित अनेक उत्सवों में एक है। इस पर्व को पन्द्रह दिनों तक मनाने के लिए सरकार प्रचुर धनराशि खर्च करती है।अतः पैसे की स्वीकृति पूर्व में ही करा ली जाती है। फिर क्या हर कार्यालय के प्रमुख ,हिन्दी  अधिकारी व कर्मचारी नेमी कार्यों से विरत हो नित एक नया कार्यक्रम आयोजित करते हैं और स्मृतिचिन्ह ,पुरस्कार व जलपान में पैसे समायोजित करते हुए हिन्दी  को भरपूर उपकृत करते हैं।

इस पखवाड़ा में ऐसे निठल्ले कहे जाने वाले कर्मचारियों की ,जिन्हें केवल हिन्दी  लिखना ,बोलना आता है, उनकी वैसे ही पूछ बढ़ जाती है जैसे शरद ऋतु में खञ्जन पक्ष की। गैर हिन्दी  भाषी कर्मचारी जिन्हे थोड़ी बहुत हिन्दी  आती है, वे तो इस पखवाड़ा में साइबेरिया से आये प्रवासी पक्षियों की भाँति गोष्ठियों में दर्शनीय व शोभनीय हो जाते हैं।जहाँ चाह है वहाँ राह है। दो चार लोग वाद -विवाद, टिप्पण, टंकन, लेखन, आलेखन इत्यादि में भाग लेने केलिए जुटा लिए जाते हैं। निर्णायक की भूमिका के लिए हिन्दी  के लाभार्थी तथा व्याख्यान के लिए धनार्थी हर कार्यालय को बड़ी सुगमता से मिल जाते हैं। चूँकि पखवाड़ा का आयोजन पैसे से जुड़ा है अतः प्रिंट एवँ इलेक्ट्रानिक माध्यमों की भी सहभागिता हो जाती है। बड़े ही आनन्दमय वातावरण में”अगले बरस फिर अइयो साथ में ज्यादा बजट ले अइयो’ की कामना के साथ विभागाध्यक्षों द्वारा पखवाड़ा का समापन कर दिया जाता है। फिर वही यक्ष प्रश्न कि हिन्दी  भारत की राष्ट्र भाषा क्यों नहीं और पखवाड़ा का छल क्यों।
स्वाधीन भारत में हिन्दी  के प्रगामी प्रयोग को बढ़ाने एवँ,इसके प्रचार प्रसार हेतु दशकों से हर वर्ष यह सरकारी पर्व मनाया जा रहा है परन्तु हिन्दी  देश की राजनीतिक देहरी पर, अपने हक़ के लिए, सात दशकों से अनवरत खड़ी है।हमारे नेता इसे राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात करते हैं परन्तु राष्ट्र भाषा बनाने की चर्चा से कन्नी काट जाते हैं। प्रारंभिक दिनों में बाबुओं द्वारा सरकार के ज्ञाप ,परिपत्र या पत्र अंग्रेजी में जारी हो जाते थे और नीचे लिख दिया जाता था -हिन्दी  वर्जन फालोज। आश्चर्य है आज भी वैसा ही हो रहा है। इस प्रक्रिया को हिन्दी  की नियमित मासिक प्रगति रिपोर्ट बनानेवाले बाबू इतने वर्षों में उलट तक नहीं सके कि कोई अभिलेख हिन्दी  में पहले जारी हो और उस पर लिखा हो कि अंग्रेजी पाठान्तर अनुगमित।हमारे लोकतंत्र में विश्वसनीयता के पैमाने पर सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है परन्तु आज तक उसे भी चिन्ता नहीं हुई कि वह जो फैसले अंग्रेजी में देती है उसका सीधा सम्वन्ध जनता से है जिसकी मातृ भाषा हिन्दी  है या हिन्दी  की सहोदरी भाषाएँ। ऐसे में फैसले भी वकील या उन जैसे दुभाषिये पढ़ कर याची या प्रति याची को बताते हैं।ये न्याय देने वाले भारतीयता का कौन सा आदर्श उच्च या निचले न्यायालयों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। जनहित की सोचने वाले जनहित का मरम जानने में विफल हैं।अब वे तर्क बेमानी लगते हैं कि हिन्दी  में तकनीकी शब्दावली क़ी कमी है या विज्ञानं,अभियांत्रिकी ,अंतरिक्ष ,कानून जैसे विषय हिन्दी  में ब्यक्त नहीं हो पाते। भाषाओँ की दूरियाँ मिट रही हैं। अंग्रेजी का ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष प्रति संस्करण अनेकों हिन्दी  के शब्द आत्मसात कर रहा है। वैसे ही हिन्दी  में अन्य भाषाओँ के अनेकानेक शब्द घुल मिल रहे हैं।जिन शब्दों के अन्य भाषाओँ में समानार्थी नहीं होते वे शब्द हर भाषा के लिए सर्वमान्य रूप में लिए जाते हैं। भाषा पर महात्मा गाँधी के यही विचार थे जब वे हिंदुस्तानी भाषा पर बल देते थे। अतः इस बहकाने वाले कुतर्क से हट कर उस मन्तब्य को सामने लाना चाहिए जो हिन्दी  से भेद भाव का मूल कारण है।
इस भेद भाव की नींव भारत की पराधीनता के दिनों में पड़ी जब अंग्रेज शासन करते थे। उनकी अपनी शासन शैली थी जिसमें वे अपनी अँग्रेजी भाषा ,अपनी सभ्यता ,अपनी जाति एवँ अपनी शिक्षा को पूरी दुनियाँ में सर्व श्रेष्ठ मानते थे।वे लोग लम्बे शासन काल में देशी साधन संपन्न लोगों को अपने साँचे में ढाल कर कर देशी अंग्रेज बनाते गए। स्वतंत्रता मिलने तक इस देश में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की जड़ें बहुत सुद्दृढ की जा चुकी थीं और देशी अंग्रेज़ या इंडियन, अंग्रेजियत के साथ, सत्ता सँभालने के लिए तैयार हो चुके थे। फिर क्या था ये देशी इंडियन सत्ता सँभाल लिए और देशी भाषाओँ को भारतीयों की भाषा तक सीमित कर आज तक भारत पर नियंत्रण किये हुए हैं।ये इंडियन ही भारती एवँ भारतीयता के अहित साधक है जो हिन्दी पखवारा का आयोजन कर करा कर हिन्दी भाषियों को तुष्ट करने का उपक्रम करते हैं।परन्तु साठ करोड़ से भी अधिक देशी हिन्दी  भाषी एवँ दुनियाँ में फैले भारतीय मूल के लोग अपनी भाषा के साथ हो रहे दुर्भाव को सहन करते हुए आज भी उसकी सेवा तथा प्रचार -प्रसार में अनवरत लगे हुए हैं।ये असंख्य हिन्दी भाषी अपनी इस मातृ भाषा को विश्व की सम्पन्नतम व सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओँ में पहचान दिला चुके हैं और उसे वह हर प्रतिष्ठा भी दिलायें गे जो साहित्य ,कला ,लालित्य से ओतप्रोत एक जीवंत लोकप्रिय भाषा को मिलनी चाहिए।हिन्दी  का गंतब्य राजभाषा ,संपर्कभाषा से आगे राष्ट्र भाषा के रास्ते विश्व भाषा बन कर अन्तरिक्ष के अनंत रहस्यों तक है।
हिन्दी  पखवारा जैसे आयोजनों के औचित्य पर भी हिन्दी  साधकों के दो परस्पर विरोधी धड़े हैं।एक निःस्वार्थ साधकों का वर्ग है जो पूर्व ऐतिहासिक काल से अर्थात संस्कृत वांग्मय से उद्गमित होने से अब तक इस भारती की सेवा में तल्लीन है। दूसरे वर्ग में हिन्दी के लाभार्थी साधक हैं जिनकी परम्परा बीर गाथा काल के चारण अथवा भाटों से आरम्भ हो भक्ति एवँ रीति काल के दरबारी साहित्यकारों से होते हुए आधुनिक काल के सरकारी सजावटी साहित्यकारों तक है।निःसंदेह दोनों वर्ग के साधक आज की आधुनिक हिन्दी के लिए सराहनीय कार्य कर रहे हैं परन्तु हिन्दी  को श्रेष्ठता की धार देने वाले निःस्वार्थ साधक रहे हैं जिन्होनें हिन्दी  की सेवा स्वान्तःसुखाय की है या कर रहे हैं। यह वही परम्परा है जिसका उद्घोष गोस्वामी तुलसी ने यह लिख कर किया कि भाषाबद्ध करब हम सोई ,मोरे मन भरोस जेहि होई।कारण बताया कि कीरति ,भनति ,भूति भल सोई,सुरसरि सम सबकर हित होई।अतः हिन्दी  के निःस्वार्थ सेवक,हिन्दी के कामिल बुल्के सरीखे विदेशी विद्वान व विदेशी शैक्षिक संस्थान सभी भूरि -भूरि प्रशस्ति के पात्र हैं।
इन वर्गद्वय के आलावा हिन्दी को बुलन्दियों पर पहुँचाने वालों में हिन्दी के चलचित्रों,हिन्दी  टीवी के समाचार व मनोरंजन के कार्यक्रमों ,हिन्दी के समाचार पत्रों तथा विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों का भी प्रथम पंक्ति में गणनीय योगदान रहा है। हिन्दी  में जीने वाले राजनेताओं ने भी कभी -कभी विश्व मंच से हिन्दी के लिए भारत देश को गौरवान्वित किया है। हिन्दी  फ़िल्मी गानों ,चलचित्रों ,भारतीय संगीत ,योग ,जय हो ,नमस्ते या सबका साथ सबका विकास का तो कहना क्या?ये पूरी दुनियाँ में हिन्दी की दुंदुभी बजा रहे हैं।देश के शिक्षा संस्थानों के लिए भी, संकोच से बाहर होकर, नेतृत्व करते हुए हिन्दी  के प्रति अपने दायित्व निर्वहन का यह स्वर्णिम समय है। मंच कोई भी हो, पखवारा हो या न हो , यदि हम भारतीय हिन्दी भाषी होने पर अहर्निश गर्व करने और आत्मविश्वास से हिन्दीमय ब्यवहार करने लगें तो सबसे आगे हिंदुस्तानी (हिन्दी) दिखेगी।

 

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